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वैराग्योपदेश
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११. भाग्यहीन का दृष्टांत अनेक देवों को उपासना के पश्चात एक भिखारी को चिता मणिरत्न (मनोवांछित देने वाला) की प्राप्ति हुई। एक बार वह जहाज में बैठा हुवा समुद्र की सफर कर रहा था। पूर्णचन्द्र को निर्मल आकाश में देखकर वह सोचता है कि चंद्र की कांति अधिक है या मेरे रत्न की, ऐसा सोचता हुवा वह उससे खेलता है, उसे उछालता है, परंतु अचानक वह रत्न समुद्र में जा गिरता है और वह पहले जैसा भिखारी बन जाता है मनुष्य भव में जैन धर्म चिन्तामणि रत्न के बराबर है । जो प्रमाद व कषाय के द्वारा इस धर्म रत्न को खो देता है वह मानव भव को खोकर नरक आदि में जाता है व दरिद्री की तरह अनेक भव भवान्तर में भटकता है।
शास्त्रकारों ने अनेक दृष्टांतों द्वारा हमारा उपकार किया है। सबका सार यही है कि विषयों के वश न होना, मन पर काबू रखना, अपनी जुम्मेदारी समझना, मनुष्यभव और देव गुरू धर्म की प्राप्ति की दुर्लभता समझ कर इन्हें व्यर्थ न जाने देना।
___ मनुष्य भव बार बार नहीं मिलता है अतः हर क्षण आत्म विचार करना चाहिए, आत्म निरीक्षण करते हुए और मोह मदिरा से दूर रहते हुए आते भव के लिए कुछ सत्कर्म कर लेना ही श्रेष्ठ है।