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अध्यात्म-कल्पद्रुम
नहीं । तू ने तो व्यर्थ ही महनत करके इनका संग्रह किया है और सारा जीवन इस निरुपयोगी काम में लगाकर आत्महिल कुछ भी नहीं किया है। इसको स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टांत है कि
एक सेठ ने बहुत सुन्दर फरनीचर, व सुख सामग्री वाला एक बंगला बनवाया । लोग उसे देखते और उसकी प्रशंसा करते जिसे सुनकर सेठ प्रसन्न होता था। अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती है ? एक दिन एक महंत उसके यहां आए। सेठ उनको भी वहां ले गया और प्रत्येक फरनीचर सामान आदि का परिचय देने लगा कि अमुक चीन का है, अमुक जापान का है आदि आदि । महंत कुछ बोले नहीं। सेठ ने पूछा कि महाराज आप कुछ भी नहीं बोलते हैं ? महंत ने कहा कि, "और तो सब ठोक है तू ने बंगला बनाने में एक भारी भूल की है, वह यह है कि इसके दरवाजे क्यों रखे ? इन्हीं दरवाजों में से एक दिन तुझे लोग बाहर निकालेंगे, तू वापस आना चाहता हुवा भो यहां न प्रा सकेगा।" सेठ को भान हुवा, उसको आत्मदशा जागृत हुई और वह प्रात्महित में प्रवृत हुवा ।। .. . तेरे कर्म और भविष्य का विचार
कर्माणि रे जीव ! करोषि तानि,
यस्ते भवित्र्यो विपदो ह्यनंताः । . . ताभ्यो. भिया तद्दधसेऽधुना किं, ..
... संभाविताभ्योऽपि भशाकुलत्वम् ॥ २० ॥