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वैराग्योप
फलों का निर्माण करने वाला भी तू ही है अतः पुरुषार्थ कर, शास्त्रसम्मत पथ पर चल और आत्म हित का प्रयत्न कर । आत्मा के सिवाय अन्य कोई वस्तु में ऐसी शक्ति नहीं है जो तुझे सुख दुःख से मुक्त कर सकती हो । श्री उत्तराध्याय सूत्र में वीर प्रभु ने फरमाया है:
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अप्पा नइ वेयरणी, अप्पा मे अप्पा काम दुहा घेणू, अप्पा मे अप्पा कत्ता विकत्ताय दुखाण य अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय अर्थात- मेरा आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी है, मेरा आत्मा ही कूट शाल्मली वृक्ष है । मेरा आत्मा ही स्वर्ग की कामधेनु है, मेरा श्रात्मा ही स्वर्ग का नंदन वन है । दुःखों और सुखों का कर्ता और विकर्ता भी आत्मा ही है | सन्मार्ग पर जाने वाला आत्मा ही मित्र है और उन्मार्ग पर जाने वाला आत्मा ही शत्रु है ।
कूडसामली । नंदणंवणं ॥
सुहाण य । सुपट्ठियो ||
लोक रंजन और आत्मरंजन
कस्ते निरंजन चिरं जनरंजनेन,
धीमन् ! गुणोऽस्ति परमार्थदृशेति पश्य । तं रंजयाशु विशदैश्चरितैर्भवाब्धौ,
यस्त्वां पतंतमबलं परिपातुमीष्टे ॥ ४ ॥
अर्थ – हे निरंजन ( निर्लेप ) ! हे बुद्धिमान ! लम्बे समय तक जनरंजन करने से तुझे कौनसा गुण प्राप्त होगा यह परमार्थ दृष्टि से देख; एवं विशुद्ध आचरण द्वारा तू तो