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अध्यात्म-कल्पद्रुम
तुझे प्राप्त सुविधा वेत्सि स्वरूपफलसाधनबाधनानि, धर्मस्य, तं प्रभवसि स्ववशश्च कर्तुम् । तस्मिन् यतस्व मतिमन्नधुनेत्यमुत्र, fafear हि न हि सेत्स्यति भोत्स्यते वा ॥ ६ ॥
अर्थ – तू धर्म का स्वरूप फल, साधन और बाधन जानता है, तू स्वतंत्र होकर धर्म करने में भी समर्थ है । अतः हे मतिमान ! तू अभी हो इसी भव में प्रयत्न कर क्योंकि आते भव में तेरे से कुछ भी सिद्धि नहीं हो सकेगी न तू उसे जान सकेगा ॥ ७ ॥ वसंततिलका
विवेचन - मनुष्य योनि में रहा हुवा ज्ञानवान जीव शास्त्रों के पठन व विद्वानों के संपर्क से धर्म का स्वरूप, फल, साधन, व धर्म में रुकावट करने वाली बाधानों को जानता है । मनुष्य सब उपाधियों से मुक्त होकर धर्म करने की शक्ति भी रखता है । अतः शास्त्रकार फरमाते हैं कि हे बुद्धिमान ! तू इसी भव में प्रयत्न शुरू कर दे नहीं तो आते भव में तू कुछ भी साधन नहीं कर सकेगा न अपने आपको या उपरोक्त भावों को जान सकेगा । अज्ञान दशा में तू न मालूम कहां भटकता फिरेगा अतः इसी भव में धर्म साधन का प्रयत्न शुरू कर दे ।
धर्म का स्वरूप – श्रावक धर्म या साधु धर्म का स्वरूप । धर्म का फल – परंपरा से मोक्ष, तात्कालिक निर्जरा या पुण्य प्राप्ति ।