________________
वैराग्योपदेश
२०३
साधन–चार अनुयोग, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की
अनुकूलता। दुर्लभ प्राप्ति—मनुष्यपन, धर्मश्रवण, श्रद्धा और धर्म में
वीर्य का स्फुरन । बाधक-कुजन्म, कुक्षेत्र, प्रतिकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव;
प्रमाद। धर्म करने की आवश्यकता-जिससे दुःख का क्षय धर्मस्यावसरोऽस्ति पुद्गलपरावर्तेरनंतैस्तवायातः संप्रति जोव हे प्रसहतो दुःखान्यनंतान्ययम् । स्वल्पाहः पुनरेष दुर्लभतमश्चामिस्न् यतस्वाहतो, धर्म कर्तुमिमं विना हि न हि ते दुःखक्षयः कहिचित् ॥७॥
अर्थ हे चेतन ! अनेक प्रकार से बहुत दुःख सहते सहते अनंता पुद्गल परावर्तन करने के पश्चात अभी ही तुझे यह धर्म करने का अवसर प्राप्त हुवा है; वह भी थोड़े दिनों के लिए है और फिर पीछे बार बार ऐसा अवसर मिलना महान कठिन है; अतः धर्म करने में प्रयत्न कर । इसके बिना तेरे दुःखों का कभी भी अन्त नहीं आएगा ॥ ७ ॥
____ शार्दूलविक्रीडित विवेचन—जीव, चौरासी लाख जीवायोनियों में भटकता हुवा कुदरतो रीति से नदी के प्रवाह में घिसते घिसते गोल होते हुए पत्थर के न्याय से मनुष्य भव पाता है । मनुष्य भव कितना दुर्लभ है यह तो पहले आया ही है और आगे भी