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अध्यात्म-कल्पद्रुम होता ही है और वे ही यदि तीव्र द्वेष से किए गए हों तो सौ, हजार, लाख और करोड़ बार भी उदय में आते हैं।
जैन शास्त्रों का मुख्य भार इसी पर है कि जीवों पर दया करो, स्वयं तरो और औरों को भी तारो।
प्राणी-पीड़ा और उसके त्याग की आवश्यकता यथा सर्पमुखस्थोऽपि, भेको जंतूनि भक्षयेत् । तथा मृत्युमुखस्थोऽपि, किमात्मन्नर्दसेंऽगिनः ॥ ११ ॥
अर्थ जैसे सांप के मुंह में रहा हुवा भी मेंढक अन्य जन्तुओं का भक्षण करता है वैसे ही हे आत्मा ! तू भी मृत्यु के मुख में रहा हुवा भी अनेक प्राणियो को क्यों पीड़ा देता है ? ॥ ११ ॥
_ अनुष्टुप विवेचन–स्वयं मौत के मुख में फंसा हुवा है, सांप निगलने की तैयारी में है ऐसी दशा में भी मुख के पास उड़ते हुए मच्छरों को मेंढक खुशी खुशी खाता है, मान लो उसे मौत का भय ही नहीं है। वैसे ही हे मानव ! तू भी तो मृत्यु रूपी विकराल काले सर्प के मुख में फंसा हुवा है फिर भी मौज शौक में मस्त होकर अन्य जीवों काभ क्षण कर रहा है बिचारे गरीबों का खून चूस रहा है ! तेरी शिक्षा तुझे उन्मार्ग पर ले जा रही है जिससे मानव जाति के उपकार के बदले उनकी कठिन आवश्यकताओं व मुसीबतों का लाभ लेकर तू कानूनी दृष्टि से या वकालत से या डाक्टरी की विद्या से या व्यापार की कला से उनका गला घोंट