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वैराग्योपदेश
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अर्थ - मैं विद्वान हूं, मैं सर्व लब्धिवान हूं, मैं राजा हूं, मैं दानी हूं, मैं अद्भुत गुण वाला हूं, मैं बड़ा हूं, इत्यादि अहंकार के वश होकर तू संतोष अनुभव करता है परन्तु परभव में होने वाले अपमानों (दुर्दशा - लघुता ) को क्या तू नहीं जानता है ? ।। ५ ।।
वसंततिलका
विवेचन – अहंकार, पतन की प्रथम सीढ़ी है | मनुष्य अपने आपको बहुत कुछ मानता है और फूला हुवा फिरता है, उसे ऐसा लगता है कि मेरे जैसा बलवान, गुणवान या विद्वान कोई नहीं है । लेकिन संसार में एक से एक बढ़कर बैठे हैं । दूसरों से जब पराजय होती है तब आंखें खुलती हैं और अनुभव होता है कि मैं तो इसके सामने तुच्छ हूं । श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में कहा है कि :
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जाति लाभकुलैश्वर्यबलरूप तपः श्रुतैः कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः ॥
अर्थात जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल रूप तप और ज्ञान का मद करने से प्राणी उन्हीं उन्हीं वस्तुओं को प्राते भव में कम प्राप्त करता है । बल के अभिमान से रावण की, दान के अभिमान से बलि की, ऐश्वर्यरूप के अभिमान से सनत्कुमार की, बड़प्पन के अभिमान से स्थूलभद्र की क्या दशा हुई यह तो प्रसिद्ध ही हे ।
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