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शास्त्राभ्यास और बरताव
१७३ व्याधियां, कपूत संतान, आदि से मनुष्य जन्म भी लंबे समय तक कडुए जहर जैसा हो जाता है अतः इसीलिए पुण्य के द्वारा मनुष्य जन्म का मधुरपन प्राप्त कर ॥ १४ ॥ स्वागता
विवेचन-मनुष्य भव में ये सात भय—इस लोक का भय, परलोक का भय, चोरी का भय, अकस्मात का भय, आजीविका का भय, अपकीर्ति का भय और मृत्यु का भय बहुत पीडाकारी हैं । इन भयों के अतिरिक्त राज्य का भय, सेठ का या अफसर का भय, भी कम नहीं है । मानसिक दु:खों में मुख्य कारणभूत स्त्री-पुत्र का मरण, दुष्ट स्वभाव के स्त्रीपुत्र के साथ जीवन यापन, धन नाश, परदेश निवास, निसंतानपन, दरिद्रपन आदि कलेजे को काटते रहते हैं। जब तक शरीर स्वस्थ है, धन की प्राय है या धन का संग्रह है तभी तक कुटुम्ब के लोग हमारी सेवा करते हैं और हमें प्रतीत होता है कि संसार स्वर्ग तुल्य है। परंतु जब शरीर अशक्त, रोगी या जर्जरित. हो जाता है, धन का कोष खतम हो जाता है तब कुटुम्ब का रोष बढ़ जाता है । वृद्धावस्था में प्रायः खांसी, दमा, ज्वर, अतिसार आदि रोग उत्पन्न होते ही हैं। मनुष्य कलेवर के हैं और स्त्री कलेवर के १२ स्थानों से अपवित्र वस्तु सतत् निकलती रहती है तब बच्चे व युवा, पुत्र पुत्री वृद्धों की हंसी करते हैं, उनसे घृणा करते हैं, उनकी आज्ञा की अवहेलना करते हैं । वे सोचते हैं कि बुढ़ा या बुढ़िया कब मरे और कब हम आराम से खाएं पीएं । यही प्रणाली इस संसार की परम्परागत है इस तरह