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चित्तदमन
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मोक्ष में चला जाने वाला है (अतः इसे पकड़ रखता है) ? परन्तु क्या तेरे रहने के और अनेक स्थान नहीं हैं ? ॥ १० ॥
वसंततिलका विवेचन-जब मनुष्य का मन संसार से संतप्त होता है, तब उसे कुछ शांति की इच्छा जागृत होतो है उस समय वह किसी निर्जन, एकांत स्थान में बैठकर विचार करता है कि मुझे यह दुःख क्यों हुवा ? विचारते विचारते भान होता है कि यह सब मैंने स्वयं ने किया है। मेरा मन मेरे वश में नहीं है । मैं चाहे जिससे हंसी मजाक करता हूं, चाहे जिसको अपना जानकर उससे परिचय बढ़ाता हूं, उससे संबंध स्थापित करता हूं परन्तु समय आने पर विपरीत परिणाम आते हैं। मेरे मन ने जितने अधिक लोगों से संपर्क बढ़ाया है उतना ही अधिक संताप यह पा रहा है। उन दुःखों के कारण कुविकल्प आते हैं और प्रतिक्षण मन क्षुब्ध व चिंतित रहता है और प्रभु का स्मरण होता ही नहीं है । अतः शांत स्थान में स्थिर चित्त से बैठकर ऊपर के श्लोक को विचारना चाहिए।
पराधीन मन वाले का भविष्य पूतिश्रुतिः श्वेव रतेविदूरे, कुष्टीव संपत्सुदृशामनहः । श्वपाकवत्सद्गतिमंदिरेषु, नार्हेत्प्रवेशं कुमनोहतोंगी ॥ ११ ॥
अर्थ-जिस प्राणी का मन खराब स्थिति में होने से संताप देता रहता है वह प्राणी उस कुत्ते की तरह से तमाम पानंद से दूर रहता है जिसके कान में कीड़े पड़ रहे हों, वह