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चित्तदमन
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भी दुःखी करते हैं । वैसे प्राणी का मन दुर्विकल्पों से घिरा रहता है अतः उसके किए गए तप जप निष्फल जाते हैं । मन के साथ पुण्य पाप का संबंध
प्रकृच्छ्रसाध्यं मनसो वशीकृतात्, परं च पुण्यं, न तु यस्य तद्वशम् । स वंचितः पुण्यचयैस्तदुद्भवैः फलैश्च ही ही हतकः करोतु किम् १३
अर्थ – वश में किए हुए मन से महान उत्तम प्रकार का पुण्य, बिना कष्ट के साधा जा सकता है । जिसका मन वश में नहीं है वह प्राणी पुण्य के समूह से ठगा जाता है और पुण्य से होने वाले फल से भी ठगा जाता है । अरे ! अरे ! ऐसा हतभाग्य जीव विचारा क्या कर सकता है ?
वंशस्थविल
विवेचन - जिसका मन वश में नहीं है वह पुण्य के उत्तम फल के लोभ से कष्ट सहन करता है, तप करता है लेकिन मन में संकल्प विकल्प पैदा होते रहते हैं अतः उसे तप जप फल नहीं देते हैं | श्री चिदानंदजी ने कहा है कि :
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जब लग मन आवे नहि ठाम,
तब लग कष्ट क्रिया सवि निष्फल ज्यों गगने चित्राम ॥ वचन काय गोपे दृढ़ न धरे चित्त तुरंग लगाम । तामे तुंग न लहे शिव साधन, जिऊं कण सूने गाम ||
अर्थात जब तक चित्तरूप चंचल घोड़े की लगाम हाथ में नहीं है तब तक कष्ट क्रिया सब बेकार हैं जैसे कि आकाश में कल्पित चित्र निरर्थक है । जब तक मन, वचन और शरीर गुप्त ( वश ) नहीं है तब तक तुझे शिव (मोक्ष) नहीं मिल