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अध्यात्म-कल्पद्रुम
से देवगति में भी निरन्तर दुःख है । एवं जिस सुख के परिणाम से दुःख होता है उस सुख से भी क्या लाभ है ? ।। १३ ।। उपजाति
विवेचन - देवताओं की यह रीति है कि उन्हें अपने स्वामी इंद्र आदि की चाकरी करनी पड़ती है यद्यपि मनुष्य की तरह उनको सेवा का कोई परिणाम या वेतन आदि नहीं मिलता है फिर भी मजबूरन सेवा निश्चित है । बलवान देव कमजोर देव की देवी को उठाकर ले जाता है जिससे उसका पराभव होता है । ईर्षाग्नि से वे आपस में जलते रहते हैं | मरने का डर हर वक्त उन्हें भयभीत करता रहता है । पुष्प माला का मुरझाना आदि चिन्हों से मृत्यु जानकर वे छः मास पूर्व से ही विलाप करना शुरू कर देते हैं । उन्हें देव गति का आयुष्य सम्पूर्ण कर अन्य गतियों में भी जाना पड़ेगा इसका डर लगा रहता है । उपदेशमाला में धर्मदासगणि ने कहा है कि :
च्यवन के समय (देवायुष्य की समाप्ति व अन्यत्र जन्मने के पूर्व की अवस्था ) अपना पूर्व का सुख व भविष्य में होने वाले दुःख का विचार कर देवता सिर फोड़ते हैं और दीवार से सिर टकराते हैं ।
इस प्रकार से देवगति का सुख भी परिणामतः दुःख ही है । मनुष्य गति के दुःख सप्तभीत्य भीभ वेष्ट विप्लवानिष्टयोगगददुः सुतादिभिः । स्याच्चिरं "विरसता नृजन्मनः, पुण्यतः सरसतां तदानय ।। १४ ।। अर्थ – सात भय, अपमान, प्रिय वियोग, अप्रिय योग,