________________
चित्तदमन
१७६
विवेचन–मन बड़ा समर्थ है अतः जबरदस्ती से वश में नहीं आता है अतः इसे प्रेमपूर्वक मनाने के लिए जीव ने प्रार्थना की है कि हे मेरे चिरकाल के मित्र (संज्ञी पंचेंद्रिय के समय से ही इसका साथ है) तू अपनी दोस्ती निभा और अपनी उच्छृखलता द्वारा मुझे नरक में मत लेजा। मन के वश में नहीं रहने से नरक आदि कुगति मिलती है जिससे मैं डरता हूं।
मन पर अंकुश करने का सीधा उपदेश स्वर्गापवौं नरकं तथान्तर्मुहूर्तमात्रेण वशावशं यत् । ददाति जंतो सततं प्रयत्नाद्वशं तदंतःकरणं कुरुष्व ।।३।।
अर्थ-वश और अवश मन क्षण में स्वर्ग-मोक्ष या नरक अनुक्रम से जीव को देता है अतः प्रयत्न करके तू उस मन को शीघ्र वश में कर ॥ ३ ॥
उपजाति विवेचन“मन एव मनुष्याणां कारणंबंधमोक्षयोः”। मन के कारण से ही मनुष्यों को मोक्ष या नरक मिलता है । प्रसन्नचंद्र राजर्षि का वृतांत स्पष्ट है। युद्ध में रत अपने पुत्रों का विचार करते करते वे स्वयं भी ध्यानावस्था में युद्ध करते हैं, जब शस्त्र खतम होते हैं तो शत्रु पर फैंकने के लिए मुकुट उठाने के लिए सिर पर हाथ ले जाते हैं पर वहां तो मुकुट के बजाय मुंडित सिर पर हाथ जाता है तब उन्हें भान होता है कि मैं तो दीक्षित हूं। मन वापस काबू में प्राता है और क्षण पूर्व जो उन्होंने सातवीं नारकी का बंध किया था वह केवल ज्ञान में बदल जाता है। एक दृष्टांत और देखिए । मगरमच्छ की प्रांख की पलक में एक चांवल जैसी छोटी सी