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देहममत्व
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कि शरीर का स्वभाव नाशवान है, तो फिर इस शरीर के पोषण के लिए क्यों तू अत्यंत असावधान होकर पाप, पुण्य का विचार न करता हुवा, तन्मय (शरीरमय) होकर झूठे आनंद में विभोर रहता है। रात दिन इसका और इसके उपयोगी धन, मकान, खेती, वाणिज्य का विचार करता रहता है । हे बुद्धिमान सच्चिदानंद प्रात्मा ! तू इस धूर्त से दूर रह । यह जिन वस्तुओं में मोह करता है वे सब इसके सजातीय हैं, जाति से जाति को प्रेम होता ही है (वे भी नाशवान हैं यह भी नाशवान है) हे प्राणी ! तू आते कल (दिन) या आते काल (मृत्यु) का विचार कर और इससे सावधान हो जा। इससे तेरा उपकार कुछ नहीं होने वाला है। विपरीत इसके कि तू इसके वश में रहकर प्रमादी, हिंसक, पापी बना हुवा होने से संसारचक्र में फिरता रहेगा । यदि तू इसको अपने वश में कर लेता है तो यह शक्तिशाली इंजिन की तरह से काम कर सकता है । तुझे मोक्ष तक पहुंचा सकता है, वरना शरीर के मोह में फंसने से तेरी वही गति होगी जो सनतकुमार चक्रवर्ती को या त्रिशंकु की हुई । पहले को शरीर पर बहुत मोह था जिसकी पराकाष्ठा होने पर वह शरीर विषमय बन गया--दूसरा अपने उसी शरीर द्वारा स्वर्ग में जाना चाहता था। विश्वामित्र की सहायता से वह स्वर्ग के कोट तक पहुंचा परन्तु इंद्र ने उसे ऊंधे मुख पछाड़ा, परिणामतः वह बीच में ही लटकता रहा ।