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देहममत्व
११७ वैसे ही हमें भी उत्तम फल (मोक्ष) प्राप्त करना चाहिए। इसके बारे में कई विचारनीय प्रश्न हैं, शरीर को क्यों टिकाये रखना, उसका पालन पोषण कब करना, क्यों करना, किस लिए करना आदि । इनका उत्तर ऊपर लिखे अनुसार विचार कर मनन करना चाहिए।
शरीर से साधा जा सकने वाला आत्म हित मृत्पिडरूपेण विनश्वरेण, जुगुप्सनीयेन गदालयेन । देहेन चेदात्महितं सुसाधं, धर्मान्नकि तद्यतसेऽत्र मूढ ॥८॥
अर्थ-मिट्टी के पिंड रूप, नाशवंत, दुर्गन्ध और रोग के धाम स्वरूप इस शरीर द्वारा जब धर्म करके तू अपना हित अच्छी तरह से कर सकता है तो फिर हे मूढ़ ! उसके लिए प्रयत्न क्यों नहीं करता है ? ॥ ८ ॥
विवेचन—तुच्छ व घृणित वस्तु में भी यदि कुछ उपयोग का गुण होता है तो हमें उसकी कदर करनी पड़ती है, उसे संभाल कर रखनी पड़ती है वैसे ही ऊपर के अवगुण वाले इस शरीर का उपयोग हम चाहें तो उत्तम रीति से कर सकते हैं क्योंकि मानव शरीर ही एक ऐसा शरीर है जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । देव, तिर्यंच, या नरक के जोव मोक्ष नहीं पा सकते हैं अतः इस निर्गुणी से भी अपना हित साधन करना चाहिए अर्थात धर्म करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।
इस अध्याय का सार निम्न प्रकार से है:(१) शरीर का पोषण करना. कृतघ्न पर उपकार करने के तुल्य है।