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अध्यात्म-कल्पद्रुम ___ अर्थ बहुत ही कम और वह भी (कल्पित) माने हुए सुख के लिए तू प्रमादी बनकर बार बार इन्द्रियों के विषय में क्यों मोह करता है ? ये विषय प्राणी को संसार रूपी भयंकर गहन वन में फैंक देते हैं, जहां से उसे मोक्ष मार्ग का दर्शन दुर्लभ हो जाता है ॥ १॥ वसंततिलका
विवेचन हे जीव ! तू ने स्वादिष्ट पदार्थ खाये, संभोग किये, मधुर गायन सुने, यह सब कितने काल तक सुख देने वाले रहे ? भोजन पचा और विष्टा बना, संभोग के पश्चात निर्बलता तथा घृणा आई गायन के पश्चात कर्कश वचन श्रवण ऐसे इंद्रिय जनित सुख नष्ट हुवा। इन अल्प सुखों में मस्त रहा हुवा तू ऐसे गहरे खड्डे में गिरेगा कि जहां से मोक्ष का मार्ग भी नजर न आएगा अर्थात पशु पक्षी या नारकी जीव बनेगा, वहां धर्म की बात ही कहां रही ? जब समझ शक्ति ही नहीं है तो धर्म की बात ही कहां से हो। अतः एकांत निर्जन वन में बैठकर शान्ति से, मन को वश में करके भगवान का भजन करना चाहिए।
परिणामतः हानिकारक विषय आपातरम्ये परिणामदुःखे, सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि । जडोऽपि कार्य रचयन् हितार्थो, करोति विद्वन् यदुदर्कतर्कम् ॥२॥
अर्थ केवल भोगते हुए ही सुन्दर लगने वाले और परिणाम में दुःख देने वाले विषयों में तू क्यों आसक्त हुवा है ? हे विद्वान ! अपना हित चाहने वाला मूर्ख मनुष्य भी काम के परिणाम को तो सोचता है ॥ २॥ उपजाति