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कषायत्याग
१४३ देने वालों की कमी नहीं है । नामवरी के लिए मनोनीत शास्त्रों की रचना करना या पुराने शास्त्रों को अपनी मान्यता के अनुसार समाज के सन्मुख रखने का मार्ग तो खुल गया है यह सब माया के ही जाल हैं। यदि माया नहीं छूटी तो सब क्रियाएं-जप-तप, साधन निरर्थक हैं । मुंह से कुछ कहना, मन में कैसे ही घात सोचते रहना या मुखाकृति को सौम्य रखना वचन मोठे कहना परन्तु समय आने पर घात करना यह सब माया के हथकण्डे हैं । उदयरत्नजी ने कहा है कि:
मुख मीठे झूठो मने जी रे; कूड़ कपट नो रे कोट; जीभे तो जोजी करे जी रे, चित्तमा ताके चोट, रे प्राणी म करीश माया लगार ।।
माया ऐसी मधुरी है कि, स्वयं को मोहित कर दूसरों को मोहित कराती है, प्रात्मश्लाघा, परनिंदा, स्वगुणप्रकाशन परगुणप्रच्छादन ये इसके मुख्य कार्य हैं । मायावी मनुष्य धीरे धीरे ऐसा पतित होता है कि उसकी उन्नति का अवसर ही नहीं आता है। कम विद्वान लेकिन निष्कपट मनुष्य चाहे संसार की आंखों में साधारण ही गिना जाता हो या प्रशंसा का पात्र न गिना जाकर निंदा का पात्र गिना जाता हो तो भी वह उस धुरंधर विद्वान से श्रेष्ठ है जो माया प्रपंच द्वारा या बाहरी ढोंग द्वारा लोगों को रंजित कर उन्हें उन्मार्ग को ले जा रहा है। अतः माया रहित होकर हमें सब सांसारिक व धार्मिक कार्य करने चाहिए।