________________
१४४
अध्यात्म-कल्पद्रुम अन्य सब बातों में तो जिनेश्वर ने सभी दृष्टि से विचारना (स्याद्वाद) फरमाया है लेकिन माया न करने के लिए तो एकांत निश्चय फरमाया है।
लोभ निग्रह का उपदेश सुखाय धत्से यदि लोभमात्मनो, ज्ञानादिरत्नत्रितये विधेहि तत् । दुःखाय चेदत्र परत्र वा कृतिन्, परिग्रहे तबहिरांतरेऽपिच ॥१२॥
अर्थ हे पंडित ! यदि तू स्वयं के लिए लोभ करना चाहता है तो ज्ञान, दर्शन चरित्र में लोभ कर और यदि इस भव और परभव में दुःख की प्राप्ति के लिए लोभ करना चाहता है तो प्रांतरिक और बाह्य परिग्रह में लोभ कर ।।१२।।
विवेचन स्वयं के लिए लोभ से तात्पर्य है आत्मकल्याण से, जो मनुष्य आत्मकल्याण करना चाहता है उसे सम्यक् दर्शन, ज्ञान चरित्र की आराधना करनी चाहिए और सब प्रकार के प्रांतर परिग्रह जैसे कि (मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य आदि छ:, चार कषाय) और बाह्य परिग्रह (धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, चांदी, सोना, धातु, नौकर और पशु) का त्याग करना चाहिए तभी उसका कल्याण हो सकता है। ये दोनों प्रकार के परिग्रह आत्मा को बांधे रखते हैं इसे मुक्त नहीं होने देते । अति लोभ से धवल सेठने कई बार श्रीपाल की हानि की अंत में स्वयं ही नष्ट हुवा । लोभांध पुरुष विवेक दृष्टि खो बैठता है, आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करने का प्रयत्न करता है, दुश्चरित्र कामांध, अभिमानी पुरुष की सेवा