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अध्यात्म-कल्पद्रुम
ईर्षा नहीं करनी चाहिए पुरापि पापैः पतितोऽसि संसृतौः दधासि कि रे गुणिमत्सरं पुनः । न वेत्सि किं घोरजले निपात्यसे, नियंत्र्यसे शृंखलया च सर्वतः ।। १४ ।।
अर्थ - अरे ! पहले ही तू पाप से संसार में पड़ा है, तो फिर गुणवान पर पुनः ईर्षा क्यों करता है ? इस पाप से तू गहरे पानी में उतरता है और तेरे शरीर के चारों तरफ सांकले बांधी जा रही हैं, क्या तुझे इसका भान नहीं है ? ॥ १४ ॥
वंशस्थविल
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विवेचन - संसार वृक्ष का मूल ईर्षा या कषाय है । इस मूल को काटने में समर्थ गुणवान लोग ही होते हैं । वैसे गुणवानों पर ईर्षा करने का परिणाम है संसार वृक्ष को हरा रखना । गुणवान में प्रायः ज्ञान, शक्ति, उदारता, संतोष, सरलता, विद्वत्ता, ब्रह्मचर्य, दया, नम्रता आदि गुण पाए जाते हैं अतः वह विवेकशील कहलाता है । जिसमें ये गुण नहीं होते वह प्रायः उस गुणवान से ईर्षा करके अपने चारों तरफ़ पाप के जाल बिछाता है और कर्मरूपी जंजीरों से जकड़ा जाता है । अतः हे भाई ईर्षां का त्याग कर ।
कषाय से सुकृत्य का नाश
कष्टेन धर्मो लवशो मिलत्ययं, क्षयं कषायैर्युगपत्प्रयाति च । प्रतिप्रयत्नाजितमर्जुनं ततः, किमज्ञ ही हारयसे न भस्वता ।। १५ ।। अर्थ - महान कष्ट से जरा जरा धर्म प्राप्त होता है, वह