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शास्त्राभ्यास और बरताव
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सारांश कि शास्त्रों का अभ्यास कर प्रमादों का त्याग करके उत्तम साध्य जो मोक्ष है उसे साधना चाहिए। शास्त्र का अभ्यास करके यदि स्वात्म का कल्याण नहीं किया, मात्र दूसरों को ही उपदेश देते रहे तो इसमें प्रात्मकल्याण कुछ भी नहीं है । शास्त्रों का मनन कर प्रमाद त्याग करने में ही पुरुषार्थ है, यही आलस्य का त्याग है । आत्मा मोक्ष के अतिरिक्त अन्य को अच्छा समझता है वही प्रमाद है जो त्याज्य है।
___ स्वपूजा के लिए शास्त्राभ्यास करने वालों के प्रति अधीतिनोऽर्चादिकृते जिनागमः, प्रमादिनौ दुर्गतिपापतेर्मुधा । ज्योतिविमूढस्य हि दीपपातिनो, गुणाय कस्मै शलभस्य चक्षुषी ३ __ अर्थ-दुर्गति में गिरने वाला प्रमादी प्राणी, स्वपूजा के लिए जैन शास्त्र का अभ्यास करता है वह निष्फल जाता है। दीपक की ज्योति से पागल (मूढ) बने हुए, दीपक में गिरने वाले पतंगिए की अांखें उसको क्या लाभकारी होती है ॥३॥
वंशस्थ विवेचन—प्रांखें देखने के लिए हैं एवं आपत्ति से बचने के लिए हैं परन्तु अज्ञान पतंगियां उन्हीं आंखों द्वारा दीपक में जान बूझकर गिरता है। दीपक की लौ के रूप को देखकर वह मुग्ध होता है, उसके पंख झुलस जाते हैं और वह अपना भग्नावशेष दीपक में गिराकर भस्मीभूत हो जाता है। वैसी ही शास्त्ररूप आंखों से देखने वाला पंडित भी स्वपूजा के प्रसंग पर देखता हुवा भी अंधा हो जाता है और जान बूझ कर अपनी पूजा कराता है और मानता है कि मैं उन्नत