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शास्त्राभ्यास और बरताव वाला नहीं है। उन शास्त्रों से या उस विद्या से वह भाषण, लेखन या वादविवाद द्वारा जनरंजन, द्रव्योपार्जन या यश लाभ कर सकता है परन्तु स्वात्मा का कुछ भी हित नहीं कर सकता है। अतः ऊपर ऊपर के अभ्यास की अपेक्षा उनका अंतरतम से अभ्यास कर आत्म कल्याण करना चाहिए । ऊपर ऊपर के अभ्यास को शास्त्रकार विषय प्रतिभास ज्ञान कहते हैं जो मति अज्ञान के क्षयोपशम से होता है परन्तु साध्य तो तत्त्वसंवेदन ज्ञान है जिसे साधने से अपनी करणी का आप निरीक्षण करने की भावना उत्पन्न होती है एवं अपनी दिनचर्या का स्वयं निरीक्षण करने की उत्कंठा पैदा होती है । बीज तभी उगता है जब कि वह उत्तम क्षेत्र में पड़ा हो, जल का संयोग हो और सुरक्षित अवस्था में हो । धर्म रूप, बीज भी मनरूपी क्षेत्र में बोये जाने पर उसी दशा में उग सकता है जब कि मन का निग्रह हो, जीव दयारूपी गीलापन हो । इतना होने पर भावनारूपी अंकुर अवश्य विकसित होंगे। अतः शास्त्रों का केवल ऊपरी अभ्यास कुछ भी लाभदायी नहीं है।
शास्त्र पढ़े हुए प्रमावी को उपदेश यस्यागमांभोदरसैन धौतः प्रमादपंकः स कथं शिवेच्छुः । रसायनर्यस्य गदाः क्षता नो, सुदुर्लभं जीवितमस्य नूनम् ॥२॥
अर्थ-जिस प्राणी का प्रमादरूपी कीचड़ सिद्धांतरूपी वर्षा के जल के प्रवाह से भी नहीं धोया जाता है वह किस प्रकार से मुमुक्षु हो सकता है ? वास्तव में, रसायन से भी यदि किसी