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शास्त्राभ्यास और बरताव विवेचन भौतिक वाद के विज्ञानशील युग में चाहे कितने ही विषयों के विशेषज्ञ बनकर हमने डिगरियां हासिल कर ली हों या निष्णात पंडित एवं महामहोपाध्याय बन गए हों लेकिन परलोक के कल्याणकारी, आत्महितैषी कार्यों से अनभिज्ञ रहते हों तो हमारी वे सभी डिगरियां केवल अपना व कुटुम्ब का पेट भरने का साधन मात्र समझना चाहिए। यदि शास्त्र ज्ञान केवल लोक रंजन कुतूहल व यश प्राप्ति के लिए ही किया हो तो वह निरर्थक है, कमाने का, पेट भरने का तरीका मात्र है, आत्मा के लिए उसका कोई लाभ नहीं है, यह शास्त्रकार फरमाते हैं। शास्त्राभ्यास लोकरंजन की अपेक्षा आत्मरंजन के लिए होना चाहिए तभी वह सच्चा शास्त्राभ्यास कहलाएगा। यदि शास्त्र पढ़े हुए भी हों फिर भी जीवन के बरताव में उनका कुछ भी असर न हो तो समझना चाहिए कि शास्त्रजल ऊपर से बह गया है अभी तक अंतरतल सूखा ही है या कोरा का कोरा रह गया है। वैसा शास्त्र ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं है या सम्यक् दृष्टि प्रात भी नहीं है, वैसे कोरे दिखावे रूप शास्त्र ज्ञान से प्रात्मा का कुछ भी कल्याण नहीं होता है । अत: सच्चा शास्त्र ज्ञान तो वही है जिससे स्व का व पर का कल्याण साधा जा सकता हो । वैसा अभ्यास पेट भराने की अपेक्षा सदा काल अमृत रस का पान कराने वाला होता है अर्थात मोक्ष दिलाने वाला होता है।
शास्त्र पढ़ कर करना क्या ? किं मोदसे पंडितनाममात्रात्, शास्त्रेष्वधीती जनरंजकेषु । तकिर नाघीष्व कुरुष्व चाशु न ते भवेद्य न भवाब्धिपातः ॥५॥