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अध्यात्म-कल्पद्रुम
विवेचन-क्रोध, मान, माया, लोभ इनसे आत्मा का अहित तो होता ही है साथ ही संसार के व्यवहार में भी पद पद पर आपत्तियां आती हैं । खराब स्वभाव वाले ( कषायों ) मनुष्य का कोई मित्र नहीं होता है क्योंकि वह स्वयं भी ( कषायों से ) किसी का सच्चा मित्र नहीं होता है । अतः इस लोक और परलोक के हित को नाश करने वाले कषाय का त्याग करना चाहिए ।
मद निग्रह पर विशेष उपदेश
रूपलाभकुलविक्रमविद्याश्रीतपोवितरणप्रभूताद्य: ।
कि मदं वहसि वेत्सि न मूढानंतशः स्मभृशलाघवदुःखम् ।। १७।।
अर्थ-रूप, लाभ, कुल, बल, विद्या, लक्ष्मी, तप, दान, ऐश्वर्य आदि का मद तू क्या देखकर करता है ? हे मूर्ख ! तुझे अनेक बार लघुता का दुःख सहन करना पड़ा है, क्या वह तू नहीं जानता है ? ।। १७ ।।
स्वागतावृत्त
विवेचन - मद आत्मा को वास्तविकता से ढक देता है, परिणामतः उसे अधोगति में ले जाता है । आत्मा जिस वस्तु का मद करता है वही वस्तु आते भव में नहीं मिलती है । जातिमद से हरिकेशी; लाभमद से सुभूम; कुलमद से मरीचि ; ऐश्वर्यमद से दशार्णभद्र, बलमद से बाहुबलि; रूपमद से सनत्कुमार; तपमद से कूरगडु के सम्पर्क वाले चार मुनि; श्रुतमद - विद्यामद से स्थूलिभद्र की क्या दशा हुई यह शास्त्रों से ( जैनकथा रत्नकोष भाग ६ आदि) से जान कर विचारना