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कषायत्याग
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करता है, अपमान सहता है अतः लोभ का त्याग कर आत्मश्रेय करना चाहिए |
मद मत्सर त्याग का उपदेश
करोषि यत्प्रेत्य हिताय किंचित्, कदाचिदल्पं सुकृतं कथंचित् । मा जोहरस्तन्मदमत्सराद्यं विना च तन्मा नरकातिथिर्भूः ॥ १३ ॥
अर्थ - यदि तेरे द्वारा ( इस भव में ) कभी आते भव के लिए अल्पमात्र भी सुकृत्य हो जाय तो उसे मद मत्सर करके वापस हार मत जाना और सुकृत्य के बिना तू नरक का महमान मत बन जाना ।। १३ ।। उपजाति
विवेचन – इस मानवदेह के साथ आत्मा की प्रज्ञातना से तेरह शत्रु – आलस्य, मोह, अवज्ञा, स्तंभ, (अभिमान) क्रोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, बहुकर्त्तव्यता ( सांसारिक काम), कुतूहल, रमणता, लगे हुए हैं। इनको जीतने के पश्चात यदि कभी थोड़ासा भी सत्कार्य किया जाता है तो उसे वापस मद और मत्सररूपी चोर चुरा लेते हैं और आत्मा बिना पुण्य के पहिले जैसा रह जाता है और मरकर नरक का महमान बन जाता है । अतः वैसी महमानदारी से बचने का प्रयत्न करना चाहिए । हम सुकृत्य या पुण्य भी दिखाने के लिए ही करते हैं, अंतर आत्मा में उसका असर कुछ भी नहीं होता है अतः उस प्रकार के सुकृत्य फलदायी नहीं होते हैं । मूल में मनुष्य देह दुर्लभ है | पश्चात धर्मश्रवण, धर्म में रुचि और धर्म मार्ग पर चलना उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। जिनको ये सुलभ हैं वैसे हम सभी इन दुर्लभों को फालतू खो रहे हैं ।
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