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कषायत्याग
क्रोध का परिणाम, उसके निग्रह की आवश्यकता रे जीव ! सेहिथ सहिष्यसि च व्यथास्तास्त्वं नारकादिषु पराभवभूः कषायैः । मुग्धोदितैः कुवचनादि भिरप्यतः किं,
क्रोधान्नि हंसि निजपुण्यधनं दुरापम् ।। १ ॥ अर्थ हे जीव ! तू ने कषायों के वशीभूत होकर नरकादि की अनेक पीड़ाएं सही हैं और भविष्य में भी सहेगा; अतः मूखों द्वारा दी गई गालों या कुवचनों पर क्रोधित होकर महान कठिनता से प्राप्त होने वाले पुण्य धन का नाश क्यों करता है ?
वसंततिलका विवेचन कषायों द्वारा ज्ञानतंतुओं पर पर्दा छा जाता है और मनुष्य अपने स्वभाव को भूलकर क्रोधी, मानी, मायावी या लोभी बन जाता है और न करने योग्य कामों को करता है अतः यदि गाली सुनने का प्रसंग आ जाता हो तो भर्तृहरि के कथनानुसार विचारें कि :
तुमको देनी हो उतनी गालियां खुशी से दो, कारण कि तुम गालियों वाले हो। हमारे पास गालियां हैं ही नहीं इसीलिए हम गालियां दे ही नहीं सकते हैं । दुनियां में जिसके पोस जो वस्तु होती है, वही दूसरों को दे सकता है; देखो, खरगोश के सींग नहीं होते हैं अतः वह किसी को दे नहीं सकता है। - क्रोध करने से दुर्गति होती है इसका ज्वलंत प्रमाण चण्ड कौशिक सर्प के दृष्टांत से लेना चाहिए। समता से गज