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अध्यात्म-कल्पद्रुम शरीर-घर को किराया और उसका उपयोग परोपकारोस्ति तपो जपो वा, विनश्वराद्यस्य फलं न देहात् । सभाटकादल्पदिनाप्तगेहमृत्पिडमूढः फलमश्नुते किम् ॥ ७ ॥
अर्थ - जिस नाशवान शरीर से परोपकार, तप, जप आदि फल नहीं होते, वैसे शरीर वाला प्राणी थोड़े दिन के लिए किराए पर रखे हुए भाड़े के घर रूप मिट्टी के पिण्ड पर मोह करके क्या फल प्राप्त करेगा ? ॥ ७॥ उपजाति
_ विवेचन—जैसे किराये पर लिया हुअा घर अपना नहीं होता है वैसे ही अन्नपान आदि के किराये पर टिका हुवा यह शरीर भी अपना नहीं है अतः इस शरीर से सत्कर्म रूप फल ले लेना चाहिए । शरीर पर ममता रखकर उसे आराम से रखा जाय, विविध पकवान खिलाए जाएं, बंगले में निवास हो, मोटर में घुमाया जाय फिर भी यह स्वार्थी तो अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है और प्रमाद आदि के द्वारा आत्मा को गढ़े में ले ही जाता है अतः मांस के पिंडरूप इस नाशवान शरीर पर मोह करने से कोई लाभ नहीं होगा । जैसे-रेल या मोटर का टिकट पूरा होते ही भाड़े के डब्बे को खाली करना पड़ता है और उसका मोह छोड़ते हुए हमें खेद नहीं होता है वैसे ही आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर को भी छोड़ना पड़ेगा अतः इस पर भी मोह नहीं करना चाहिए । अनंत काल से इस पर मोह रहा है इसीलिए प्राणी भवकूप में पड़ते हैं। प्रभु महावीर ने नयसार के भव से लेकर अंतिम भव तक उत्तरोत्तर इस शरीर का सदुपयोग कर मोक्ष प्राप्त किया