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देहममत्व
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से यह गति उन पदार्थों की हो जाती है । कृमि से भरे हुए हैं एवं घृणित होने से कव्वे कुत्तों के खाने के योग्य इस मानव शरीर की कोई वस्तु काम में नहीं आ सकती है जब कि पशुओं की चमड़ी, हड्डी, सींग, चरबी, बाल और यहां तक कि मलमूत्र भी काम में आता है । मानव शरीर का कोई भी भाग काम में नहीं आता है । यदि मुर्दा थोड़े समय तक पड़ा रह जाता है तो दुर्गन्ध आने लगती है व कीड़े पड़ जाते हैं, रूप विकराल हो जाता है जिसे देखते ही भय लगता है । नीतिकार ने एक मनुष्य के कलेवर को जो जंगल में पड़ा था उसे खाने के लिए उद्यत हुए एक सियार को मना किया है :
हस्तौ दान विवर्जितौ श्रुति पटौ सारस्वत द्रोहिणौ । नेत्रे साधु विलोकनेन रहिते पादं न तीर्थं गतौ ॥ अन्यायार्जित वित्त पूर्ण मुदरं गर्वेण तुंगं शिरौ । रे ! रे ! जंबुक मुंच मुंच सहसा नीचं सुनिद्यं वपुः ॥ अर्थात- अरे लोमड़ी तू इस शरीर को छोड़ दे, मत खा । इसके शरीर का कोई भी भाग खाने योग्य नहीं है क्योंकि हाथों ने दान नहीं दिया, कानों में विद्या या शास्त्र के शब्द नहीं पड़े, आँखें संतों के दर्शन से रहित हैं, पैर कभी तीर्थ यात्रा में नहीं गए, अतः ये सब अपवित्र हैं ही । यदि तू पेट खाना चाहता है तो यह तो अन्याय से कमाए हुए धन से भरा गया है और सिर भी अभिमान के मारे ऊंचा रहा है । अरे सियार जल्दी से इस सारे अपवित्र शरीर को छोड़ दे यह नीच और निंदा के योग्य है ।