________________
११०
अध्यात्म-कल्पद्रुम
है ? यह शरीर किसी के द्वारा बचाया नहीं जा सकता है; इंद्र जैसे समर्थ का भी दुःख-भय पुण्य बिना नष्ट नहीं होता है ॥ ३ ॥
वसंततिलका विवेचन—यदि इस भव में दुःखी या मरे हुए मनुष्यों को या काटे जाने वाले पशुओं को या शिकारी द्वारा मारे गये पशु पक्षियों को देखकर तुझे भय उत्पन्न होता है कि अगले जन्म में कहीं मेरी भी यह दशा न हो जाय, या शास्त्रों में नरकों का वर्णन पढ़ते हुए अथवा सिनेमा में दुखांत दृश्य देखते हुए भय उत्पन्न होता हो तो उन दुःखों से बचने के लिए हे प्राणी तू धर्म क्यों नहीं करता है ? किए हुए कर्मों के फल को भुगतने से कोई नहीं बचा सकता है, न इस शरीर को कोई सदा सर्वदा टिकाये रख सकता है, न कोई निर्भय बनाने में समर्थ है । पुण्य का फल भुगत चुकने पर अर्थात पुण्य क्षीण होने पर देवेंद्र को भी अपना आसन छोड़कर अन्य गति में जाना पड़ता है। वह भी अपने आसन के छीनने के डर से तपस्वियों को तप-संयम से गिराने की कोशिश करता रहता है जैसा कि विश्वामित्र ऋषि के साथ किया । अतः यदि तू आते भव में सद गति पाना चाहता है तो पुण्य कर जिससे संसार का भय धीरे धीरे नष्ट हो जायगा।
देह के आश्रित रहने से दुःख, निरालंब रहने से सुख
देहे विमुह्य कुरुषे किमघं न वेत्सि, देहस्थ एव भजसे भवदुःखजालम् । लोहाश्रितो हि सहते घनघातमग्निबधिा न तेऽस्य च नभोवदनाश्रयत्वे ॥ ४ ॥