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समता
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जब अन्यत्र हमसे कम ज्यादा नज़र आता है तब उस दशा को भी स्थिर नहीं रहने देते हैं । ईर्ष्या या असंतोष का भाव पैदा कर देते हैं । एक धनवान को देखकर दूसरा धनवान जलता है ।
अतः इन्द्रिय जनित सुख, दुःखदायी एवं अस्थिर है क्योंकि इन्द्रियां शरीर के साथ ही नष्ट होने वाली हैं अतः समता का सुख जो आत्मा का सुख है वही सच्चा सुख है । राजा तक के सुख भी नष्ट हो जाते हैं यह तो प्रत्यक्ष है ही । जिनके महलों में अनेक नौकर रहते थे वे स्वयं ही आज दूसरों के नौकर हैं, जिनके यहां हाथी चिंघाड़ते और घोड़े हिनहिनाते थे वे प्राज स्वयं सड़कों पर अकेले चल रहे हैं ।
"तीन बेर खाती थी सो तीन बेर खाती है" "बीन बीन खाती थी सो बीन बीन खाती है" ।
चकवर्ती एवं इन्द्र देव के सुख भी प्रायुष्य समाप्त होते ही समाप्त हो जाते हैं । अतः अमर आत्मा का समतारूपी सुख ही स्थायी एवं सच्चा सुख है ।
सांसारिक जीवन के सुख व यति के सुख
अदृष्ट वैचित्र्यवशाज्जगज्जने, विचित्रकर्माशयवाग् विसंस्थुले । उदासवृत्तिस्थित चित्तवृत्तयः सुखं श्रयन्ते यतयः क्षतार्तयः | ७ ||
अर्थ – “जब कि जगत के प्राणी पुण्य-पाप के वैचित्र्य के अधीन हैं, एवं अनेक प्रकार के शरीर के कार्यों, मन के कार्यों 'व वचन के कार्यों (व्यापार) से अस्वस्थ ( अस्थिर) हैं, तब वे यति जिनके चित्त की वृत्ति माध्यस्थ है ( विरक्त है) और
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