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अध्यात्म-कल्पद्रुम
(क्योंकि) कितने ही भावों में वे तेरे माता पिता आदि रूप से प्रीति के पात्र रह चुके हैं ।। ३१ ।
स्वागता
विवेचन—कोध आदि कषाय करना आत्मा को पसंद नहीं है, फिर भी किया ही जाता है । यद्यपि क्रोध आदि का भाव लाना आत्मा का विकृत रूप है, क्रोध से चेहरा लाल हो जाता है, अांखें तन जाती हैं, भवें चढ़ जाती हैं व चित्त उत्तेजित हो जाता है । मान करते समय आत्म-प्रशंसा, दिखावा, न होते हुए गुणों का मानना प्रादि भाव लाने पड़ते हैं । माया तो कपट बिना हो ही नहीं सकती है, मूंठ उसका सहोदर है । लोभ से अपमान, निंदा व असंतोष होता ही है । इस प्रकार से चारों कषायों से हे आत्मा ! तू क्यों मलिन होता है एवं जिन जीवों पर तूं अभी क्रोधादि कर रहा है वे अनंत भावों से तेरे माता पिता आदि कुटुम्बी रह चुके हैं और तेरे प्रीति के भाजन रहे हैं । यह आत्मा चारों गतियों की ८४ लाख योनियों में भटकता हुवा कभी किसी का भाई, कभी बहिन, कभी माता, कभी पिता, कभी पुत्र, कभी स्त्री, कभी नौकर, कभी दास भी बनता रहता है अतः सब ही तेरे स्वजन है अतः किसी भी जीव पर क्रोधावेष में मत आा, हानि तेरी ही होगी ।
शोक का स्वरूप -- उसका त्याग
यांश्च शोचसि गताः किमिमे मे, स्नेहला इति धिया विधुरात्मा । तैर्भवेषु निहतस्त्वमनंतेष्वेव तेऽपि निहता भवता च ॥ ३२ ॥ स्नेह बुद्धि से जिनको गया हुवा (मरा हुवा ) जान कर तू व्याकुल होकर शोक करता है उनके द्वारा तूं