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समता
अनंत भव में मारा गया है और तू ने भी उनको अनंत भव में मारा है।
विवेचन-व्यवहारिक रूप से जीव अनंत बार जन्मता है और अनंत बार मरता है अर्थात प्रार्याय बदलता है। उस स्थिति में पारस्परिक अनेक प्रकार के संबंध बांधता है किसी के साथ मित्रता के तो किसी के साथ शत्रुता के। मित्रता की अपेक्षा शत्रुता बांधने के प्रसंग अधिक आते हैं अतः जिनको आज तू मरा हुवा जानकर शोक कर रहा है उन्होंने भी तुझे मारा है और तू ने भी उन्हें मारा है अतः शोक करने की आवश्यकता नहीं है अर्थात समभाव रख । जीवन मरण तो मोक्ष होने तक कभी रुकने वाले नहीं है ।
मोह त्याग-समता में प्रवेश
त्रातुन शक्या भवदु:खतो ये, त्वया न ये त्वामपि पातुमीशाः । ममत्वमेतेषु दधन्मुधात्मन्, पदे पदे कि शुचमेषि मूढ ।। ३३ ॥
अर्थ तेरे द्वारा जो भव दुःखों से बचाए नहीं जा सकते हैं, और जो न तुझे ही बचाने में समर्थ हैं, वैसों के ममत्व में जलता हुवा हे मूढ़! तूं पद पद पर क्यों शोक करता है ॥२३।।
उपजर्मत विवेचन—संसार के संबंधी हमें शारीरिक दुःखों से किसी दशा में छुड़ा भी सकते हैं लेकिन भव दुःखों से, जन्म-जरा-मरण से छुड़ाने में कोई समर्थ नहीं है । हे प्रात्मा न तू भी किसी को इन दुःखों से छुड़ाने में शक्तिशाली है, फिर झूठे ममत्व के