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अध्यात्म-कल्पद्रुम
निःसंतान लोग पुत्र गोद लेते हैं, परंतु वह अपना स्वार्थ साध कर जमीन, मकान व धन पर अधिकार जमाकर उनसे अलग हो जाता है । शामिल रहते हुए चोरी से अलग पूंजी जमा करता है, पश्चात उसी पूंजी से पिता से कचहरी में झगड़ता है । प्रह यह संसार कैसा भ्रामक है । संतान के मोह में माता पिता अपने आपको भूल जाते हैं, वही संतान कृतघ्न हो जाती है । राजा श्रेणिक का पुत्र कोणिक इसका ज्वलंत उदाहरण है । गर्भ में आते ही चेलणाराणी को अपने पति श्रेणिक के कलेजे का मांस खाने की इच्छा उत्पन्न होती है, अतः इस गर्भ को दुष्टात्मा जानकर राणी जन्मजात बच्चे कोणिक को कूड़े कचरे के ढेर पर फिंकवा देती है और संतुष्ट होती है कि भावी आपत्ति ( मेरे पति की हानि ) मिट गई । राजा सद्य जात शिशु के रोने की करुणासन्न वाणी सुनता है और दासी द्वारा उसे मंगवाता है तथा सब बातें जान लेने पर शिशु की एक ऊंगली जो मुर्गी ने काट ली थी उसे अपने मुंह में सदा रखकर उसका घाव मिटाता रहता है। युवावस्था आने पर वही पुत्र पिता को कारागार में डालता है और कोड़ों से मरवाता है । ओह ! पिता के प्रति पुत्र का स्नेह कहां लुप्त हो जाता है ? सभी पुत्र ऐसे नहीं होते यह तो ममता के त्याग के लिए शास्त्रकार ने उपदेश दिया है । अभयकुमार भी इसी राजा का पुत्र था, वह विनयी आज्ञाकारी व राजा की आत्मा को संतुष्ट करने वाला था । संतान दोनों तरह की होती हैं लेकिन कोणिक की तरह की अधिक व अभय की तरह की अत्यंत कम होती हैं ।