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धनममत्व
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किया तो क्लेश, पाप और नरक से अधिक और क्या लाभ तुझे होगा ? ॥ ५ ॥
स्वागतावृत्त
विवेचन - पूर्व भव के पुण्य से धनधान्य आदि प्राप्त हुए हों तो उनका सदुपयोग ज्ञानदान, औषधादान, अभयदान, साधर्मी उत्थान, या निराश्रितों को आश्रय देने में, बहिनों को शिक्षित करने में, उद्योग द्वारा प्राजिवीका दिलाने में, या सत् शास्त्रों के प्रकाशन में या देव संबंध में करना चाहिए, वरना धन आदि के कारण तृष्णा बढ़ेगी फलत: असंतोष तो होगा ही साथ ही कुटुम्ब क्लेश भी होगा और दुर्ध्यान करते हुए मृत्यु होने से दुर्गति निश्चित होगी । अतः पूर्वजों से प्राप्त हुए या स्वयं द्वारा प्राप्त किए गए धन का सदुपयोग करना चाहिए वरना क्लेश, पाप व नरक तो समक्ष हैं ही ।
धन से अनेक हानियां - उसके त्याग का उपदेश प्रारंभैर्भरितो निमज्जति यतः प्राणी भवांभोनिधावीहंते कुनृपादयश्च पुरुषा येनच्छलाबाधितुम् । चिताव्याकुलताकृतेश्च हरते यो धर्मकर्मस्मृति, विज्ञा ! भूरिपरिग्रहं त्यजत तं भोग्यं परैः प्रायशः || ६ || अर्थ - आरम्भ के पाप से भारी बना हुआ प्राणी जिस धन के कारण से संसार समुद्र में डूबता है, जिस धन के कारण से कुराजा आदि ( अन्यायी राजा, राज्य कर्मचारी ) पुरुष, छल के द्वारा उसे बांधना चाहते हैं, बाधा (कष्ट) देना चाहते हैं और जो धन, चिंता व्याकुलता कराता है एवं धर्म कर्म की याद को (धर्म, कर्म के स्मरण को) भुला देता है, या