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धनममत्व
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विवेचन—कभी कभी निर्बल के हाथ में रही हुई तलवार स्वयं उसका ही घात कराती है वैसे ही निर्बल के पास रहा हुवा धन भी स्वयं उसका घात कराता है, नादिरशाह की लूट इसका प्रमाण है। पहले भी परशुरामजी ने पृथ्वी को क्षत्री रहित कर खूब संहार किया परन्तु उसका भोग सूभूम ने किया। प्रति वासुदेव सदा तीन खंड जीतते हैं और भोगने से पहले ही वासुदेव उनका संहार कर तीनों खण्ड छीन लेते हैं और प्रतिवासुदेव की मृत्यु स्वयं उसके ही चक्र द्वारा होती है । नंद राजा की स्वर्ण की पहाड़ी भी उसके काम नहीं आई। सिकन्दर बादशाह ने कहा :
जे बाहुबल थी मेलव्युं ते भोगवी पण न शक्यो । अब्जोनी मिलकत प्रापतां पण ऐ सिकंदर न बच्यो ।।
यह धन किसी को रोग से या मृत्यु से बचा नहीं सकता है अत: इसमें ममता न करो।
- धन से सुख की अपेक्षा दुःख ज्यादा होता है ममत्वमात्रेण मनःप्रसादसुखं धनरल्पकमल्पकालम् । प्रारंभपापैः सुचिरं तु दुःखं, स्यादुर्गतौ दारुणमित्यवेहि ॥३॥
अर्थ अहा, यह धन मेरा है, ऐसे विचार मात्र से थोड़े समय के लिए मन में आह्लादरूप सुख होता है परन्तु आरंभ के पाप से दुर्गति में लम्बे समय तक भयंकर दुःख होता है, यह तो तू समझ ॥ ३ ॥
उपजाति विवेचन-तरह तरह के आरंभ सारंभ (पाप कार्यों) से ११