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समता
म्हारा बधावैदो हकीमोंने अहीं बोलावजो म्हारो जनाजो एज वैदो ने खभे उपड़ावजो । दर दर्दियो ना दर्द ने दफनाव नारूं कोण छे । डोरी तुटी आयुष्यनी तो सांधनारूं कोण छे । आखा जगत ने जीतनारूं सैन्यपण रड़तुं रह्य ं विक्रालदल भूपालने नहीं काल थी छोड़ावी शक्युं ॥
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ऊपर के सब साधनों का वास्तविक स्वरूप समझकर हे भाई ! तू सावधान हो जा । तू प्रतिक्षण विषयों में लिप्त हो रहा है, ये तेरी आत्मा को स्वार्थी मित्रों की तरह घेरे हुए हैं । वास्तविक सुख देने के ये साधन नहीं हैं, वर्षाऋतु में आकाश में दिखने वाले इन्द्र धनुष की तरह ये देखते ही देखते नष्ट होने वाले हैं: अतः प्रमत्तावस्था को दूर कर आपस्वरूप को पहचान और यह निश्चय जान ले कि आयुष्य को कोई बढ़ा नहीं सकेगा । जगत का कोई पदार्थ यमराज के मुँह में से तुझे कभी नहीं छुड़ा सकता है । क्या सिंह के मुँह में से बकरे को छुड़ाने की शक्ती किसी में है ? यमराज, वनराज से भी अधिक बलवान है | अतः समता को धारण करके वास्तविकता को पहचान ।
कषाय का स्वरूप - उसका त्याग
किं कषायकलुषं कुरुषे स्वं केषु चिन्ननु मनोऽरिधियात्मन् । तेपि ते हि जनकादिकरूपैरिष्टतां दधुरनंतभवेषु ।। ३१ ।।
अर्थ - हे आत्मा ! कितने ही प्राणियों पर शत्रु बुद्धि रखकर तूं अपने मन को कषाय से क्यों मलिन करता है ?