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समता
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विवेचन—सभी शरीर धारियों का देह पुद्गल से बना हुवा है, चाहे वे मानव हो या पशु पक्षी या कीट पतंग । लकड़ी, पत्थर, लोह, स्वर्ण आदि ये परमाणुमय वस्तुएं अचेतन हैं। ये दोनों चेतन, अचेतन पदार्थ अपने बदलने के स्वभाव के कारण (पर्याय से) रूपांतरित होते रहते हैं अतः इन पर राग या द्वेष करना अनुचित है, अयोग्य है । एक जीव अभी मनुष्य है, सत्कर्म करके देव शरीर धारण करता है फिर मानव बनकर तीर्थंकर बन जाता है, एक जीव सत्कार्य तो करता है लेकिन उसे देव की ऋद्धि सिद्धि अच्छी लग रही है, उसकी अभिलाषा भी यही है अतः वह वहां पहुंच जाता है। एक जीव संसार में मस्त रहकर आत्मा परमात्मा, पुण्य, पाप, धर्म अधर्म कुछ भी नहीं मानता है अपनी हो इच्छा से मन चाहे सिद्धांत बनाकर खुद भी चलता है और दूसरों को भी वैसी ही सलाह देता है परिणामतः उन सबको लेकर वह नरक या तिर्यंच के कष्ट सहन करता है। प्रात्मा एक है परन्तु कर्म से इसके पर्याय बदल रहे हैं । एक मकान अभी नया बनाया है, कुछ वर्षों के पश्चात वह वर्षा से या बिजली से क्षत विक्षत हो जाता है और खण्डहर मात्र रह जाता है । नए रेडियो, घड़ी, हारमोनियम, यंत्र, कल कारखाने, मोटरें घर का सारा सामान सभी का यही स्वभाव है । आज जो नया है कल वही टूटी फूटी अवस्था को प्राप्त हो जाता है, फिर बनता है फिर बिगड़ता है यह क्रम चलता ही रहता है अतः इन पर राग द्वेष करना अयोग्य है।