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अध्यात्म-कल्पद्रुम
लिया जाता है । अतः भवसमुद्र से निकलने के लिए या मोक्षप्राप्ति के लिए स्त्री, गले में बंधी हुई शिला के सदृश्य ही है ।
स्त्रियों में स्थित असुंदरता चर्मास्थिमज्जात्रवसास्रमांसामेध्याघशुच्यस्थिरपुद्गलानाम् । स्त्रीदेहपिंडाकृतिसंस्थितेषु, स्कंधेषु किं पश्यसि रम्यमात्मन् ।।२।।
अर्थ स्त्री के शरीर पिंड की आकृति में रहे हुए चमड़ी, हड्डी, चरबी, अांतरडे, मेद, रुधिर, विष्टा आदि अपवित्र
और अस्थिर पुद्गलों के समूह में हे आत्मा ! तूं कौन सा सौंदर्य देखता है ? ॥ २॥
इंद्रवजा विवेचन हे आत्मा ! क्या तू ने रेल के इंजिन या डब्बे से कटे हुए मानव देह या पशु कलेवर को देखा है ? नाक मुंह क्यों चढ़ाता है ? इन्हीं पदार्थों से तेरी और तेरी प्रिया की देह बनी हुई है । यदि वह मुर्दा कुछ अधिक काल तक वहीं पड़ा रहता है तो उसमें से कैसी असहनीय दुर्गन्ध निकलती है। अरे यही सब तो तेरी उस मोहक नारी के शरीर में रहे हुए अपवित्र व अस्थिर पुद्गलों का स्वरूप है ? इन पर मत लुभा । उनके वास्तविक स्वरूप को पहचान कर उस पर मोह करना छोड़ दे। कहा भी है :
दीपे चाम चादर मढ़ी, हाड़ पिंजरा देह,
भीतर या सम जगत में, अवर नहीं घिनगेह ।। जो पदार्थ केवल चमड़े से ढके रहने के कारण तुझे सुन्दरतम प्रतीत हो रहे हैं, उन्हें जरासा खुला देखकर तुझे