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अध्यात्म-कल्पद्रुम
समता के पहचानने वालों की संख्या जानन्ति कमानिखिलाः ससंज्ञा, अर्थ नराः केऽपि च केऽपि धर्मम् । जैनं च केचिद् गुरुदेवशुद्धं केचित् शिवं केऽपि च केऽपि साम्यम् ॥ २५ ॥ अर्थ—सब संज्ञा वाले प्राणी, 'काम' को जानते हैं, उनमें से कुछ ही 'अर्थ' (धन प्राप्ति) को जानते हैं; और उनमें से भी कुछ ही 'धर्म' को जानते हैं; उनमें से कुछ ही जैनधर्म को जानते हैं और उनमें से बहुत ही कम शुद्ध देव गुरुयुक्त जैनधर्म को जानते हैं, परन्तु बहुत थोड़े प्राणी मोक्ष को पहचानते हैं और उनमें से भी बहुत कम प्राणी समता को पहचानते हैं।
विवेचन—काम की अभिलाषा सभी प्राणियों को होती है । देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, आदि को तो वह होती है परन्तु आश्चर्य तो यह है कि एकेन्द्रिय वृक्षों तक को होती है :
पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः, शोकं जहाति बकुलो मधुसिंधुसिक्तः । प्रालिगितः कुरुबकः कुरुते विकास
मालोकितस्तिलक उत्कलिको विभाति ।। अर्थात् स्त्री के पादप्रहार से अशोक वृक्ष विकसित होता है, उसके द्वारा शराब का कुल्ला थूकने से बकुल वृक्ष शोक रहित होता है, स्त्री के आलिंगन से कुरुबक वृक्ष विकास