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समता
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होकर अपने स्वरूप को पाना । फिर से जन्म या मृत्यु नहीं होकर शास्वत सुख का अनुभव करते हुए जीव का सिद्ध शिला पर रहना । इस स्वरूप को समझने वालों की अपेक्षा भी बहुत ही कम ऐसे होंगे जो समता के स्वरूप को पहचानते हैं ।
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सुज्ञ मानव प्राणियो ! इस प्रकार से चारों पुरुषार्थों का स्वरूप जानकर हमें धर्म और मोक्ष इन दो पुरुषार्थों में ही शक्ति लगाना चाहिए कारण कि मानव भव को खोने के पश्चात हमें किसी भी भव में विवेक प्राप्त न होगा । हम अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक ज्ञानवान हैं अतः हमें संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी कहा जाता है । यदि हम अपना हित नहीं साधते हैं तो फिर पशु और हममें अन्तर ही क्या है ? क्योंकि "आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेत्तत्पशुभिर्नराणाम्" । केवल विषय वासना में चित्त रहता हो तो कामी कुत्ते को देखो, उसकी क्या दुर्दशा होती है; केवल धन में चित्त रहता हो तो मर कर सर्प बन उस पर चोकी करनी पड़ेगी । यदि अपने वैभव में चित्त रहता हो तो मर कर नंद मणियारे की तरह अपनी ही बनाई हुई बावड़ी में सेंढक बनना पड़ेगा आदि । अतः चारों पुरुषार्थों में से धर्म, व मोक्ष इन दो को आराध और साथ ही समता को पहचानो । सारे दिन वृथा बातों से दूर रहकर जितना अधिक समय मिले अपना विचार करो । निर्थक बातों से कोई परिणाम न निकलेगा विपरीत खेद होगा । मोक्ष प्राप्ति का साधन समता है । यह ज्ञान का क्रिया में निरूपण है । ऐसा स्वरूप जानने पर ही वास्तविक सुख का अनुभव होगा ।