________________
५८
अध्यात्म-कल्पद्रुम
पुरुषार्थ को करते हैं । धर्म शब्द की व्याख्या करना उपयुक्त होगा । धर्म का शब्दार्थ है - धार्यते इति धर्मः अर्थात् जीवों को दुर्गति में गिरने से जो रोकता है, उन्हें सत्पथ में धारण करता रहता है वह धर्म है । अब जैन धर्म का स्वरूप जानना भी आवश्यक है । जित् का अर्थ है जीतना । जिसने जीत लिया है अंतरंग शत्रुओं को उसे जिन कहते हैं । उस जिनकी श्राज्ञा को मानने वाले जैन कहलाते हैं ! अंतरंग शत्रुनों से तात्पर्य है क्रोधमान, माया लोभ, राग द्वेष, मत्सर तथा आठ कर्म आदि । अतः अन्य धर्मों को जानने वालों की अपेक्षा जैन धर्म को जानने वाले कम हैं और उनसे भी कम तो वे हैं जो जैन धर्म को शुद्ध रीति से पालते हैं । शुद्धदेव जो अठारह दोशों को दूर करने के पश्चात ही जिन कहलाते हैं । उनका स्वरूप जानने वाले विरले हैं । अठारह दोष ये हैं | (१) दानांत राय, (२) लाभांतराय, (३) भोगांतराय, ( ४ ) उपभोगांतराय, (५) वीर्यांतराय, (६) हास्य, (७) रति, ( 5 ) अरति, ( 8 ) भय, (१०) शोक, (११) जुगुप्सा ( निंदा ) ( १२ ) काम, (१३) मिथ्यात्व (१४) अज्ञान, (१५) निद्रा, (१६) अविरति, (१७) राग, (१८) द्वेष | सच्चे गुरु जो साधु अवस्था में २७ गुण के धारक होते हैं, उपाध्याय बनने पर २५ गुण धारक और आचार्य बनने पर ३६ गुण धारक होते हैं । ऐसे देव गुरु और धर्म के स्वरूप को जानकर जैन धर्म पालने वाले बहुत कम हैं । इन प्राणियों में से भी बहुत कम ऐसे हैं जो मोक्ष के स्वरूप को समझते हैं । मोक्ष अर्थात् आत्मा का सर्व बंधनों से मुक्त होकर, शुद्ध