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समता
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ही है । स्नेह में भी स्वार्थ है और रुदन में भी स्वार्थ है । अशक्त और रोगी नौकर को सेठ निकाल देता है, प्रमाणिक व स्वामीभक्त सेवक को वृद्धावस्था में राजा छोड़ देता है । धनहीन मनुष्य को मित्र, संबंधी, स्नेही, भाई, बहिन, सभी हीन दृष्टि से देखते हैं । अतः संसार की इस रीति को देखकर बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि परभव के हितकारी 'स्वार्थ' को स्व ( आत्मा ) के अर्थ ( हित ) को साध ले | ऐसा कौन बुद्धिमान है कि स्वार्थी संसार को देखकर स्वयं स्वार्थी ( स्वहितैषी ) नहीं बनेगा ।
स्वप्न दर्शन स्वप्नेंद्र जालादिषु यद्वदाप्तेरोषश्च तोषश्च मुधा पदार्थः । तथा भवेऽस्मिन् विषयैः समस्तैरेवं विभाव्यात्मलयेवधेहि ||२७||
अर्थ - इस भव में प्राप्त हुए समस्त विषयों व पदार्थों पर रोष या तोष करना उसी प्रकार निर्थक है जिस प्रकार स्वप्न में या इन्द्रजाल में देखे हुए पदार्थों पर रोष (क्रोध) या तोष ( संतोष ) करना है । अतः हे आत्मा ! इस बात का विचार कर एवं आत्मभाव में लवलीन हो जा हो) ।। २७ ।।
( समाधि में तत्पर
उपजाति
विवेचन - यदि स्वप्न में कोई गरीब मनुष्य राजा या सेठ हो जाता है, या सुख सामग्री वाला हो जाता है परन्तु स्वप्न दूर होने पर वह अपने टूटे फूटे घर व सामान को देखकर स्वप्न की कल्पना करके दुःखी होता है, परन्तु उसकी कल्पना निर्थक है । कोई बाजीगर या इन्द्रजालियां रुपयों का ढेर कर