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अध्यात्म-कल्पद्रुम
समता की भावना - - उसका दर्शन
न चेंद्रियार्थेषु रमेत चेतः,
अर्थ" जिसका न कोई जिसका न कोई अपना है, न कषाय रहित होकर इन्द्रियों के विषयों में है वही परम योगी है ॥ ६ ॥
न यस्य मित्रं न च कोऽपि शत्रुनिजः परो वापि न कश्चनास्ते । कषायमुक्तं परमः स योगी ॥ ६ ॥ मित्र है, न कोई शत्रु ही है, पराया ही है; जिसका मन रमण नहीं करता उपेन्द्रवज्रा
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विवेचन - जिस प्रकार रंगरेज़ कपड़े को रंगने से पहले उसका पहले का रंग धो डालता है, उसे उकालकर साफ करता है तभी उस पर इच्छित रंग चढ़ा सकता है, उसी प्रकार हम सब जो परमात्मा के रंग में रंगना चाहते हैं उनका कर्त्तव्य है कि हमारे मन जो कि अनेक प्राधि-व्याधिरूप रंगों से रंगे हुए हैं उनको तपाग्नि में तपाकर साफ कर लें अर्थात मन-वस्त्र का जो वास्तविक रंग है, उसे प्राप्त करें ।
कैसे भी संयोग क्यों न उपस्थित हों, कोई चाहे किसी भी तरह विचलित करना चाहता हों, मर्म स्थानों पर शारीरिक पीड़ा करता हो, या मार्मिक शब्दों द्वारा मन को प्रवेश में लाना चाहता हो फिर भी जो सम परिणामों में रहता है वही सच्चा उपासक या परम भक्त योगी है । नमि राजर्षि का दृष्टांत अत्यंत उपयोगी होने से उत्तराध्ययन सूत्र से संक्षिप्त उद्धरित किया है:
मिथिला नगरी के राजा नमि को एक बार दाह ज्वर हुआ । उसकी शांति के लिए लेप करने के लिए उसकी ५००