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समता
माध्यस्थ भावना का स्वरूप क्रूरकर्मसु निःशंकं, देवतागुरुनिदिषु ।
आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितं ॥ १६ ॥ अर्थ-निशंक होकर क्रूर कर्म करने वाले, देव गुरु की निंदा करने वाले, अपनी प्रशंसा आप ही करने वाले प्राणियों की तरफ उपेक्षा रखना माध्यस्थ भावना है ॥ १६ ॥
अनुष्टुभ विवेचन राख की ढेरी के नीचे आग जिस प्रकार छुप जाती है बुझती नहीं है उसी प्रकार से कर्मों के आवरण से आत्मा अपना भान भूल जाता है, अस्तित्व तो मौजूद है । वैसे ज्ञान शून्य आत्मा कितने ही प्रकार के क्रूर कर्म करते हैं। बकरों, गायों, भैसों आदि को कसाई खाने में ढकेल आने वाले खटीक, उन्हें काटने वाले कसाई, चिड़ीमार, शिकारी, आदि के कर्म कितने क्रूर हैं ? मालगाड़ी के डब्बे बकरे बकरियों से भरे देखकर अांखों में आंसू पाते हैं, हमारा वश नहीं चलता है अतः उन मारे जाने वाले प्राणियों के प्रति करुणा और उन मारने वाले या मांसाहार प्रोत्साहकों के प्रति उपेक्षा रखना ही माध्यस्थ भावना है। सच्चे देव और सच्चे गुरु की निंदा करने वाले तथा अपनी प्रशंसा आप करने वाले प्राणी भी उपेक्षा के पात्र हैं। यहां यह तात्पर्य नहीं है कि ढोंगी, दिखावटी, बक् भगत, अंतर कपटी गुरुषों के करणी का अनुमोदन करें। उनकी परीक्षा कर, वास्तविक स्थिति को पहचानने के पश्चात ही उनमें श्रद्धा करें । कहा है कि, “गुरु कीजे