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अध्यात्म-कल्पद्रुम खुला ही रहता है, अत: उपयोग बिना का कोई जीव तीनलोक में नहीं है। चाहे जैसे आवरण करने वाले, (ढ़कने वाले) कर्म हों तो भी यह अक्षर का अनंतवां भाग तो ढ़का ही नहीं जा सकता है। अक्षर का अर्थ है ज्ञान व दर्शन का उपयोग । जैसे सूर्य पर बादलों का समूह छाया हुवा हो फिर भी कुछ न कुछ भाग तो खुला रहता ही है उसी प्रकार प्रात्मा का अनंत ज्ञान ढ़क जाने पर भी ज़रा सा भाग तो खुला रहता ही है अतः जिस कारण से दिन, रात्रि से भिन्न माना जाता है वैसे ही प्रात्मा भी इसी लक्षण से अजीव से भिन्न होता है। यद्यपि आत्मा का लक्षण ज्ञान है फिर भी कर्म से ढके रहने से वह प्रकट प्रतीत नहीं होता है। खान में रहे हुए सोने में भी जैसे शुद्ध कांचनत्व है वैसे ही आत्मा में भी अनंत ज्ञान सर्वदा रहता ही है, मात्र उस पर पर्दे पड़े हुए हैं। व्यक्त अव्यक्त रूप से जब आत्मा को क्षयोपशम होता है तब शक्ति और कार्य के रूप में ज्ञान उत्पन्न होता है, फिर जब वह बल (वीर्य) चला जाता है तब जैसे मिट्टी दर्पण को ढक लेती है वैसे ही कर्म आत्मा को ढक लेते हैं परन्तु यदि बहुत प्रयत्न करके सब मिट्टी दूर की जाय तो अनादि शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है । आत्मा का स्वरूप एक ही है परन्तु कर्मावृत्त होने से वह विविध रूप धारण करता है। ___ ऐसे इस अनादिकाल से अविरत स्वरूपवाले (सदाकाल अज्ञान से भटकने वाले) आत्मा का कोई अपना नहीं है, पराया भी कोई नहीं है, इसके लिए तो सब बराबर है। जैसे वृक्ष के फल एक ही जगह उत्पन्न होते हुए भी, एक साथ रहते हुए भी