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समता
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निरंतर होता ही रहता है अतः वहां विशेष सावधान रहना चाहिए, वैसे प्रसंगों से दूर रहना चाहिए ।
आत्मा और अन्य वस्तुओं के संबंध पर विचार अनादिरात्मा न निजः परो वा, कस्यापि कश्चिन्न रिपुः सुहृद्वा । स्थिरा न देहाकृतयोऽणवश्च, तथापि साम्यं किमुपैषि नैषु ॥२३॥
अर्थ आत्मा अनादि है, इसका स्वयं का कोई नहीं है तथा पराया भी कोई नहीं है; न यह किसी का शत्रु है न किसी का मित्र है; देह की प्राकृति तथा उसमें रहे हुए परमाणु भी स्थिर नहीं हैं ; फिर भी तूं इनमें समता क्यों नहीं रखता है ? ।। २३ ॥
उपजाति विवेचन–पात्मा के विषय में संसार में बड़ी भिन्नता है कोई कुछ मानता है, कोई कुछ। परन्तु वास्तव में अात्मा एक ऐसी वस्तु है जो कभी नष्ट नहीं हो सकती । द्रव्यरूप से वह ध्र व है, पर्यायरूप से वह बदलती है, पुद्गल के संसर्ग से विचित्र जाति, नाम, शरीर धारण करती है। जिस प्रकार स्वर्ण एक पदार्थ है, उसके तरह तरह के आभूषण बनवाना पर्याय है, उसमें चांदी, तांबा पीतल के मिला देने से रंग में अंतर पड़ जाता है, इतना होते हुए भी स्वर्ण स्वर्ण ही रहता है। उसी प्रकार आत्मा सदा अमर व ध्र व है। प्रात्मा का लक्षण श्री लोकप्रकाश (द्रव्यलोक-द्वितीयसर्ग, श्लोक ५३-७३) के अनुसार इस प्रकार से है, “जीव का सामान्य लक्षण चेतना है, विशेष स्वरूप पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, तथा चार दर्शन ये बारह उपयोग हैं। सब जीवों का अक्षर का अनंतवां भाग तो