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अध्यात्म-कल्पद्रुम
भटकाने वाले भी रागद्वेष ही है अतः इन शत्रुत्रों के द्वारा बनाए हुए नियमों को हे आत्मा तूं क्यों मानता है अर्थात रागद्वेष को छोड़ने का उपाय तूं क्यों नहीं करता है ? राग तो मोहमयी मदिरा है जिसके सेवन से प्रमत्त हुआ जीव विवेक रहित हो जाता है । द्वेष भी क्रोधरूपी दावानल है जिसको लपटों में सब पुण्य भस्म हो जाता है । मोह या राग मीठी छुरी है जो क्षणिक मधुरता का आस्वादन कराती हुई जीभ को काटती है । द्वेष दृष्टि विषधर है जो दृष्टि से ही घात करता है । इन दोनों के कारण ही प्रभु का मार्ग दुर्गम हो रहा है । जिस प्रकार शत्रु, विपरीत सम्मति देकर हानि करता है, उसी प्रकार ये दोनों भी आत्मा को भव जंजाल में से निकलने नहीं देते हैं । ये लुटेरे तमाम आत्मधन को लूट कर नंगे कर देते हैं अर्थात पुण्य छीन कर श्रात्मा को भवकूप में ढकेल देते हैं । हे कल्याण के इच्छुक भाई ! इन दोनों शत्रुनों को पहचानकर इनसे दूर रह, वरना भव में भटकना बंद न होगा । देवगति में विरह दुःख तथा परोत्कर्ष दुःख, मनुष्यगति में आजिविका का दुःख एवं संयोग वियोग का दुःख तिर्यंचगति में मूकस्थिति, सर्दी गर्मी भूख प्यास सहने का दुःख ; एवं नरकगति शारीरिक-मानसिक एवं अनेक प्रकार के दुःख राग द्वेष के कारण ही जीव को सहने पड़ते हैं । अतः इन दुःखों के कारणभूत इन दोनों से दूर रहकर आत्महित करो । बिना पहचान वालों से हम रागद्वेष कम करते हैं जब कि अपने परिवार में माता, पिता, स्त्री, पुत्र, मित्र या नौकर के साथ तो पद पद पर इन दोनों में से एक या दोनों का व्यवहार