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अध्यात्म- कल्पद्रुम
छूता भी नहीं है क्योंकि ऐसी कीमती वस्तुनों से वह अनभिज्ञ है; इसी प्रकार आज इस बीसवीं सदी में यही सूत्र प्रायः बहुतों ने अपना रखा है, “खाओ पियो और मौज करो" । चिरस्थायी, पुण्यकारी परभव को सुधारने वाली धार्मिक वृत्तियों से वे दूर रहते हैं । धार्मिक बातें सुनकर वे कहते हैं कि ये तो हमारे दादाजी या पिताजी के लिए है, हम तो अभी बालक हैं ! आश्चर्य है !! यह जवानी जो कुछ काल में ढलने वाली है, यह धन जो कुछ वर्षों के बाद हमारे पुत्र के या अन्य के अधिकार में जाने वाला है, यह मकान जो कि अस्तव्यस्त होने वाला है यह परिवार जो बिछुड़ने वाला है, इन अस्थायी वस्तुओं को ग्रहण करने व संभालने में ही हम अपनी अमूल्य आयुष्य व्यतीत कर रहे हैं । इन पौद्गलिक ( नाशवान ) वस्तुओं को ग्रहण करते करते एक दिन हम थक जाते हैं । वृद्धावस्था में आनंद से रहने के लिए जीवन भर उन्मादी की तरह व्यस्त रहते हैं, घड़ी के काँटों की तरह निरंतर घूमते रहते हैं । एक एक वस्तु किसी न किसी निमित्त से संग्रहित करते ही रहते हैं । लेकिन हाय ! उस सुख की घड़ी के आने से पूर्व ही हम चल बसते हैं । वे सब वस्तुएं हमारी हंसी उड़ाती हैं कि, "अरे ज़रा ठहरो, हम तो आपके भोग की राह देख रही है ! एक दिन भी आपने हमारा भोग नहीं किया, हम ज्यों की त्यों पड़ी हैं ।" कातर दृष्टि से ताकता हुआ वह प्राणी प्रांखों में आँसू भरकर निसास डालता है और सोचता है कि अरे मन की अभिलाषाएं मन में ही रह
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