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समता
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परनिंदा सुनकर वह स्थान छोड़ देता है, या बात बदल देता है या प्रसन्न होता है । आज हम किस स्थिति में हैं । गुण न होने पर भी गुणवान, ज्ञान न होने पर भी ज्ञानी, विद्या न होने पर भी विद्वान केवल शब्द रचना करके कवि, छोटे पद पर होते हुए भी अफसर कहलाना चाहते हैं । यदि कोई वैसा नहीं कहता है तो हम अपनी वास्तविक स्थिति में आ जाते हैं अर्थात् लड़ने लगते हैं या अप्रसन्न होकर उससे बदला लेना चाहते हैं और अपनी वास्तविक स्थिति को प्रकट कर देते हैं । अतः ज्ञानी वही है जो आत्म निन्दा, पर गुण प्रशंसा, क्रोध-आवेश के समय शीतल स्वभावी रहता है ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः संति सन्तः कियन्तः ||
अणु जैसे छोटे से पराए गुणों को पर्वत जैसा महान मानकर जो निरंतर अपने हृदय में उदार भावना रखते हैं वैसे संत पुरुष कोई विरले ही होते हैं ।
अपना पराया पहचानने का उपदेश
न वेत्सि शत्रून् सुहृदश्च नैव, हिताहिते स्वं न परं च जन्तोः । दुःखं द्विषन् वांछसि शर्मचैत निदानमूढः कथमाप्स्यसीष्टम् ||२०|| अर्थ – हे मूर्ख ! तू अपने शत्रु-मित्र, द्वेषी - हितैषी, स्वकीय- परकीय को नहीं पहचानता है तू दुःख पर द्वेष करता है और सुख को चाहता है परन्तु उसके कारण को न जानने से इष्ट वस्तु कैसे प्राप्त कर सकेगा ।। २० ।।
उपेन्द्रवजावृत्त