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अध्यात्म- कल्पद्रुम
बनाकर कथा मनोरंजन द्वारा उनका धन व समय नष्ट करते हैं । सांसारिक भूल भुलैया में डालते हैं, पंथ के वाड़े में घेर लेते हैं, तत्त्व तो बतावें कहां से, क्योंकि वे खुद ही नहीं जानते, अतः निसत्त्व मनोरंजनों से ढाल - चौपाइयों गीतों से उन्हें प्रसन्न रख वाह वाह की पुकार कराते हैं और अपना चित्र देखकर या जय जय सुनकर प्रसन्न होते हैं । उन जैसे बिचारे जीवों पर करुणा तो आती है परन्तु वे बाड़े में बंधे हैं, हमारा जोर न चलने से उदासीनवृत्ति रखनी पड़ती है यही माध्यस्थ भावना या उपेक्षावृत्ति है ।
चारों भावनाओं का संक्षिप्त स्वरूप मैत्री परस्मिन् हितधीः समग्रे, भवेत्प्रमोदो गुणपक्षपातः । कृपा भवार्त्ते प्रतिकर्तुमीहोपेक्षैव माध्यस्थ्यमवार्यदोषे ॥ ११ ॥
अर्थ – दूसरे समस्त प्राणियों पर हित बुद्धि, मैत्री भावना ; गुण का पक्षपात होना, प्रमोद भावना; भवरूपी व्याधि से पीड़ित प्राणियों को भाव और प्रौषधि से अच्छा करने की भावना, करुणा भावना; अशक्य दोषवाले प्राणियों पर उदासीनता माध्यस्थ भावना । उपजाति
चारों भावनाओं का हरिभद्र सूरिकथित स्वरूप परहितचिता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥ १२ ॥ अर्थ-अपनी आत्मा के सिवाय अन्य आत्माओं की चिंता करना मैत्री; दूसरों के दुःखों को नाश करने की चिंता करुणा, दूसरों को सुखी देखकर प्रसन्न होना प्रमोद; पराए दोषों को