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समता देखकर उदासीन रहना, (न प्रशंसा न निंदा) माध्यस्थवृत्ति से रहना, उपेक्षा है।
आर्यावृत्त मंत्री भावना का स्वरूप मा कार्षात्कोपि पापानि, माचाभूत्कोपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा, मतिमैत्री निगद्यते ॥ १३ ॥
अर्थ-कोई प्राणी पाप न करे, कोई दुःखी न हो, इस . जगत से जोव, कर्म रहित होकर मुक्त हो; ऐसी बुद्धि सब प्राणियों के प्रति होना मैत्री है ।
अनुष्टुपवृत्त अष्टादशपुराणानां, सारात्सारः समुद्धृतः। परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनं ॥ विवेचन-लौकिक दृष्टि से आज संसार स्वार्थी होता जाता है, किसी को दूसरे की परवाह नहीं है, सब अपने अपने हाल में मस्त हैं परन्तु यह सब उल्टा हो रहा है । आज हम स्वार्थी (स्व-अर्थी) न होकर परमार्थी (परम्-अर्थी) हो रहे हैं अर्थात् स्व का, आत्मा का हित न चाहते हुए पर (संसार की नाशवान वस्तुओं) का हित चाह रहे हैं । सांसारिक सुख वैभव को संभाले हुए हैं जब कि आत्मा का विचार भी नहीं करते हैं । अतः हमें अपना मित्र बन कर वैसी ही मित्रता सब जीवों की तरफ रखनी चाहिए।
प्रमोद भावना का स्वरूप अपास्ताशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥१४॥ अर्थ-जिन्होंने सब दोषों को दूर किया है और वस्तु