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अध्यात्म- कल्पद्रुम
श्रादि की दशा में चित्त का सन्तुलन बनाए रखना । एकदम सुखी या दुःखी, प्रफुल्ल या ग्लान, ( राजी या नाराज़ ) न होकर चित्त को सम स्वभाव में बना रखना ।
इन्द्रियों के सुख - समता के सुख
यद्रियार्थः सकलैः सुखं स्यान्नरेद्रच त्रित्रिदशाधिपानाम् ! तबिंदवत्येव पुरो हि साम्यसुधांबुधेस्तेन तमाद्रियस्व || ६ ||
अर्थ- समता के सुखरूप समुद्र के सामने इन्द्रिय जनित राजा, चक्रवर्ती और देवेन्द्र का सब प्रकार का सुख भी वास्तव में एक बिन्दु के बराबर है अतः समता के सुख को ग्रहण कर ।। ६ ॥ उपेन्द्रवज्रावृत्त विवेचन-संसार में सभी सुख चाहते हैं, परन्तु सुख का स्वरूप नहीं जानते हैं । इन्द्रियों के विषयों की तृप्ति को ही हम सुख मान बैठे हैं । एक वस्तु अभी सुखकर प्रतीत हो रही है वही कुछ समय पश्चात् दुःखकर हो जाती है जैसे कोई आदमी किसी स्वादिष्ट वस्तु को सुखकर मानकर अधिक मात्रा में खा लेता है जिससे उसे अजीर्ण आदि रोग हो जाते हैं और वह दुःखी हो जाता है । एक मनुष्य विषय भोग में सुख मानकर सदा काल उसी में तत्पर रहता है जिससे क्षय आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं और वह अकाल मृत्यु द्वारा काल का कवलित बनता है ।
हमारे सुख, वैभव एक दूसरे से न्यूनाधिक मात्रा में होने से हमें खेद एवं प्रसन्नता पहुंचाते हैं लेकिन जब उनका प्रमाण